Do Bund Aanshu - 1 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | दो बूँद आँसू - भाग 1

Featured Books
  • तुझी माझी रेशीमगाठ..... भाग 2

    रुद्र अणि श्रेयाचच लग्न झालं होत.... लग्नाला आलेल्या सर्व पा...

  • नियती - भाग 34

    भाग 34बाबाराव....."हे आईचं मंगळसूत्र आहे... तिची फार पूर्वीप...

  • एक अनोखी भेट

     नात्यात भेट होण गरजेच आहे हे मला त्या वेळी समजल.भेटुन बोलता...

  • बांडगूळ

    बांडगूळ                गडमठ पंचक्रोशी शिक्षण प्रसारण मंडळाची...

  • जर ती असती - 2

    स्वरा समारला खूप संजवण्याचं प्रयत्न करत होती, पण समर ला काही...

Categories
Share

दो बूँद आँसू - भाग 1

भाग -1

प्रदीप श्रीवास्तव

सकीना यह समझते ही पसीना-पसीना हो गई कि वह काफ़िरों के वृद्धाश्रम जैसी किसी जगह पर है। ओम जय जगदीश हरे . . . आरती की आवाज़ उसके कानों में पड़ रही थी। उसने अपने दोनों हाथ उठाए कानों को बंद करने के लिए लेकिन फिर ठहर गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि आख़िर वो यहाँ कैसे आ गई। 

उसकी नज़र सामने दीवार पर लगी घड़ी पर गई, जिसमें सात बज रहे थे। खिड़कियों और रोशनदानों से आती रोशनी से वह समझ गई कि सुबह के सात बज रहे हैं। वह बड़े अचरज से उस बड़े से हॉल में दूर-दूर तक पड़े बिस्तरों को देख रही थी जो ख़ाली थे, जिनके बिस्तर बहुत क़रीने से मोड़ कर रखे हुए थे। मतलब वहाँ सोने वाले सभी उठ कर जा चुके थे। 

इसी बीच आरती पूर्ण होने के बाद समवेत स्वरों में, “ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशीभूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ श्लोक बोला जा रहा था। 

उसके हाथ एक बार फिर अपने कानों को बंद करने के लिए उठे, लेकिन बीच में ही फिर ठहर गए। वह बड़ी उलझन में पड़ गई कि कैसे यहाँ पहुँच गई। उसे कुछ-कुछ याद आ रहा था कि वह तो अपने सबसे छोटे बेटे जुनैद के साथ डॉक्टर के यहाँ दवा लेने के लिए निकली थी और उस समय शाम भी ठीक से नहीं हो पाई थी। 
धीरे-धीरे उसे एक-एक बात याद आने लगी कि डॉक्टर के यहाँ से दवा लेने के बाद जुनैद कार स्टार्ट करते हुए बोला था, ‘अम्मी तुम्हारी तबियत रोज़-रोज़ ख़राब हो जाती है, आज तुझे बाबा की मज़ार पर ले चलता हूँ। वहाँ बहुत लोग अपनी मन्नतें माँगने जाते हैं। तुम्हें दवा और दुआ दोनों की ज़रूरत है।‘तो उसने कहा था, ‘अभी मैं नहीं चल पाऊँगी, मुझसे बैठा भी नहीं जा रहा है। जब बुख़ार ठीक हो जाएगा, तब किसी दिन चलूँगी।’

लेकिन वह ज़िद करते हुए बोला था, ‘नहीं अम्मी, परेशान मत हो। दो लाइनें पार करके मज़ार तक पहुँच जाओगी। मैं तुझे स्टेशन के पीछे वाली सड़क से ले चलूँगा। तुम्हारा हाथ पकड़ कर लाइन पार कराऊँगा। देखना तुम वहाँ पहुँचते ही ठीक हो जाओगी।’

उसने फिर मना किया था कि ‘मुझसे बैठा नहीं जा रहा है, तुम पहले घर चलो।’ लेकिन उसने डॉक्टर की दी दवाओं में से एक पुड़िया उसे खिलाते हुए कहा, ‘लो, पहले तुम दवा खाओ। जब-तक हम-लोग मज़ार पर पहुँचेंगे तब-तक तुम्हारा बुख़ार उतर जाएगा। यह डॉक्टर सोलंकी की दवा है। जानती हो सभी कहते हैं कि इनकी दवाई में जादू होता है जादू।’

पुड़िया देख कर उसने कहा था कि ‘ऐसी कोई पुड़िया तो उन्होंने नहीं दी थी। ये क्या है . . .’ 

वह अपनी बात भी पूरी नहीं कर पाई थी कि उसके पहले ही उसने दवा खिला दी थी। उसके बाद उसे कुछ याद नहीं कि यहाँ कैसे पहुँच गई। जुनैद कहाँ चला गया। 

उसे अभी भी बुख़ार महसूस हो रहा था। बहुत कमज़ोरी लग रही थी। अब-तक पूजा ख़त्म हो चुकी थी। आख़िरी बार शंख बहुत तेज़ बजा था। 

थोड़ी ही देर में उसने महसूस किया कि एक साथ कई लोग हॉल की तरफ़ चले आ रहे हैं। उनकी परस्पर बात-चीत की आवाज़ भी आ रही थी। वह बैठी-बैठी घबराई हुई सी दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी। उसका अनुमान सही था, एक बड़े डील-डौल वाली भगवा वस्त्र पहने साध्वी जैसी दिखने वाली महिला अंदर आई। उनके बेहद गोरे, चमकदार चेहरे पर बड़ा-सा तिलक लगा हुआ था। 

बहुत लम्बे, घने, रेशम से काले बालों को साधुओं की तरह सिर के ठीक ऊपर गोल-गोल लपेटा हुआ था। गले और हाथों की कलाइयों में रुद्राक्ष की बड़ी-बड़ी मोतियों की माला पहनी हुई थी। उनकी आँखों, चेहरे पर ग़ज़ब का तेज़ था। उनके साथ उनके जैसी ही लम्बी डील-डौल वाली भगवा वस्त्र ही पहने चार-पाँच और साध्वियाँ थीं। पूरा हॉल उन सभी की खड़ाउओं की एक लय-बद्ध सी आवाज़ से तब-तक गूँजता रहा जब-तक वह उसके पास आकर खड़ी नहीं हो गईं। 

साध्वी ने उससे बड़ी स्नेहमयी मुस्कुराहट के साथ पूछा, “अब आपका स्वास्थ्य कैसा है?” 

सकीना को कोई जवाब ही नहीं सूझा। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि वह क्या उत्तर दे। उसकी आँखों में आँसू भर आए। 

यह देख साध्वी ने कहा, “मैं आपकी मनःस्थिति को समझ रही हूँ। बिल्कुल भी परेशान मत होइए। आपकी सेवा-सुश्रुषा का ध्यान रखा जाएगा। आप शीघ्र ही पूर्णतः स्वस्थ हो जाएँगी। निश्चिंत रहिए। हमें अपने बारे में कुछ बताइए। आज जब आश्रम का गेट खोला गया तो आप बाहर चबूतरे पर एक फटा-पुराना कंबल ओढ़े लेटी हुई थीं। आपसे बात करने की कोशिश की गई, आप कौन हैं? कहाँ से आई हैं? लेकिन आप बुरी तरह बुख़ार में तप रही थीं। बोल भी नहीं पा रही थीं, तो हम आपको यहाँ ले आए। 

“डॉक्टर ने चेकअप करके दवा दी। आपको देखकर हमें इस बात का पूरा विश्वास है कि आप भले परिवार से सम्बन्ध रखती होगी। बस हम आपके बारे में इतना ही जानते हैं। हमें अपने घर-परिवार के बारे में बताइए, आपको आपके घर वालों तक पहुँचाने में पूरी सहायता की जाएगी।” 

यह सुनते ही सकीना की आँखों से आँसू झरने लगे। यह देख कर साध्वी ने उसके आँसू पोंछते हुए कहा, “शांत हो जाइए, पहले ही आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है।”

साध्वी ने उससे और बात करना उचित नहीं समझा, साथ आए डॉक्टर को संकेत किया कि वह फिर से उसका चेकअप करें। उसका बुख़ार पहले से कम हो गया था, ब्लड-प्रेशर भी थोड़ा-सा ही ज़्यादा था। डॉक्टर ने पहले वाली दवाओं को कॉन्टिन्यू रखने और हल्का-फुल्का खाना-पीना देने के लिए कहा। 

साध्वी ने अपनी सहायिका को सकीना का ध्यान रखने, खाने-पीने की व्यवस्था करने के लिए कहा, और सकीना को सांत्वना देती हुई बोलीं, “नाश्ता करके दवाई ले लीजिए और आराम कीजिए। जल्दी ही पूरी तरह स्वस्थ हो जाएँगी। मैं फिर आपसे बात करूँगी।” यह कहकर चली गईं। 

कुछ ही देर में सकीना के लिए एक सहायिका पूड़ी-सब्ज़ी और खीर ले आई। उस बुख़ार में भी उन्हें देखकर भूख से सकीना की व्याकुलता और बढ़ गई। पिछले क़रीब बीस घंटों से उसने कुछ भी खाया-पिया नहीं था। खाने के बाद उसे बहुत राहत महसूस हुई। वह दवा खा कर लेट गई। सहायिका उसे कंबल ओढ़ा कर चली गई। 

हॉल में वह एकदम अकेली हो गई। सोचने लगी अल्लाह ता'ला उसे यह किस गुनाह की सज़ा दे रहा है। रोज़-रोज़ जो सुनती थी कि औलादों ने दौलत के लिए वालिदैन को मार दिया या कहीं बाहर फेंक दिया, भगा दिया तो क्या मेरी औलादों ने भी मेरे साथ यही किया है। 

वह करवट लेटी हुई थी। आँखों से आँसू निकल-निकल कर तकिये को नम कर रहे थे। उसे याद आ रही थी कल की बीती शाम, बेटा जुनैद, जो उसे दवा दिलाने के बहाने घर से तीन-चार सौ किलोमीटर दूर लाकर सड़क पर फेंक गया। 

वही बेटा जो सम्पत्ति के बँटवारे के समय बड़े लाड़-प्यार से कहता था, ‘अम्मी तू बिलकुल फ़िक्र मत कर, हम चारों में ही बँटवारा हो जाने दे। अपना हिस्सा लगवा कर क्या करेगी। मैं तुझे अपने साथ रखूँगा, तुम्हारी देख-भाल करूँगा।’

और उसकी बेगम ने भी बार-बार ऐसी ही बातें करते हुए मिन्नतें की थी कि ‘अपना अलग हिस्सा लेकर अकेली कैसे रहोगी? तुम ठीक से उठ-बैठ भी नहीं पाती हो। एक मैं ही हूँ, जब से आई हूँ इस घर में, तभी से बराबर तुम्हारी देख-भाल करती आ रही हूँ।’

कितनी बड़ी भूल की मैंने उन सब की बातों पर भरोसा करके। मुझे उन सब की धमकियों से डरने की बजाय उन्हीं ख़ातून की तरह सीधे पुलिस में जाना चाहिए था, जो मकान छीन कर लड़कों द्वारा बाहर निकाल दिए जाने पर सीधे पुलिस थाने गईं। 

पुलिस ने न सिर्फ़ फिर मकान पर क़ाबिज़ कराया, बल्कि लड़कों को पूरी सख़्ती के साथ समझा दिया कि क़ानूनन माँ की देख-भाल करना तुम सबकी ज़िम्मेदारी है। क़ानून का पालन नहीं करोगे तो सज़ा भुगतने के लिए भी तैयार रहो। मिनट भर में सब लाइन में आ गए थे। 

ख़ातून टीवी वालों के सामने कितना बार-बार पुलिस वालों को शुक्रिया कह रही थी। मैं भी पुलिस के पास चलूँ क्या? उन्हें बताऊँ कि मेरी औलादों ने ही मुझ पर किस-किस तरह से, कितने ज़ुल्म किए हैं। मेरी मदद कीजिये, औलादों के ज़ुल्मों-सितम से मुझे भी नजात दिलाइए। 

कमज़र्फ़ औलाद ने दवा के नाम पर न जाने कौन सा ज़हर खिला दिया था कि कार घंटों चलती रही और मुझे होश तक नहीं आया। ग़लती मेरी ही है, बीते दो महीनों से जिस तरह की बातें वह सब कर रहे थे, उन सब के इरादे मेरी समझ में उसी समय क्यों नहीं आए कि यह सब मकान दौलत के बाद अब मुझे घर से बाहर फेंकने की तैयारी कर चुके हैं। 

एक मोबाइल का सहारा था कभी किसी से बात करने का, उसको भी जान-बूझकर बच्चों से पानी में डलवा कर ख़राब करवा दिया था। बच्चे भी इधर बीच कैसी-कैसी ऊट-पटाँग बातें ज़्यादा बोलने लगे थे। माँ-बाप दोनों सुनते रहते थे, लेकिन बच्चों को एक बार भी मना नहीं करते थे कि मुझे ऐसी उल्टी-सीधी बातें कह कर ज़लील नहीं किया करें। मैं उनकी दादी हूँ।